Sunday, November 21, 2010
गाँव के दुःख दर्द में साझी बूढ़े बुर्ज
गाँव के खेतों में बुर्ज बूढ़े होने लग गए हैं. खेतों में अब बुर्ज की जगह पक्के कोठे बनने लग गए हैं. प्राचीन सभ्यता से पाश्चात्य सभ्यता की ओर धीरे धीरे गाँव के कदम बढ़ने लगे हैं.
हमारे बुजुर्ग
(1)
हरलाल बैनीवाल
बीस हजार जेब से खर्च कर गिन्नाणी को अतिक्रमण से बचाया
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(2)
बाली बैनीवाल
तीन सौ मण चीणां गी माद एकली बरसां देंवती अर बिचाळै पाणी ई कोनी पींवती

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(३)
प्रेमदास स्वामी
मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी

ढेरिया घुमाते हुए वे कहते हैं- 'म्हारै जमाने में ढेरियै गी चोखी चलबल ही। लुगाइयां चरखो अर माणस ढेरियो कातता। ढेरियै बिना मनै आवड़ै कोनी। बिलम गो बिलम अर काम गो काम। हाड चालै इतणै आदमी नै काम करणो चईयै। अब तो माचा अर पीढा फगत छोरियां नै दायजै में देवण खातर बणगे द्यूं। जमानो प्लास्टिक गो आग्यो। आपणी चीज्यां नै ओपरी चीज्यां खावण लागगी। बोरा तो गमईग्या। मेळै में गिंवारियै गी कुण सुणै। अब ढेरै गी बा तार कोनी रैयी।Ó वे बात का रुख मोड़ते हैं- 'खळा काढणा भोत दोरो काम हो। म्हीनै तांई पून कोनी चालती तो लियां ई बैठ्या रैंवता। ऊंटां पर नाज ढोणो दोÓरो हो। आज मसीनां गै कारण खेती अर गाम-गमतरा करणां सोखा होग्या। पण...Ó ऐसा कहते-कहते प्रेमदास मानो दूर कहीं खो गए और चेहरे पर चिंता के भाव छा गए। बोले-'आदमी जमाने गै सागै कीं बेसी बदळग्यो। भाई-भाई खातर ज्यान देंवतो, पण आज हाथ-हाथ नै खावै। संपत अर प्रेम भाव तो जाबक ई कम होग्यो। ऊंट पर बोरो घाल चीणा बेचण जांवता, च्यार रिपिया मण गो भाव हो। संतोष हो। अब टराली भर-भर बेचै, पण सबर कोनी। कम मैणत में बखार भर जावै आ तो ठीक है, पण पाणी गी भांत रिपियो खर्च करद्यै, बीं गी कीमत कोनी मानै। आ बात आछी कोनी। आजकाल आळां खातर मैं कैवूं कै बै हराम गी खाण गी नीत ना राखै, मैणत, लगन अर प्रेम भाव सूं आपरो हीलो करै। मायतां गी बेकदरी भोत होगी। मायतां गी सेवा करसी बो ई सुखी रैसी।'
चौपाल
हमारे गाँव की चौपाल कुछ अलग ही तरीके से मंडती है.यहाँ हर घर के आगे चुन्तरी कोई न कोई बुजुर्ग बैठा हुआ हथाई करते हुए मिल जायेगा. कई बुजुर्ग कहानियाँ किस्से सुनाकर भलाई का सन्देश प्रसारित करते हैं तो कई हुक्का भरकर बैठक जमाते हैं. नीम के नीचे चौपड़, ताश, चर-भर, शतरंज आदि खेलते हुए मिल जायेंगे. गाँव में हर कोई भलाई का कम करता मिल जायेगा. यहाँ हर रोज शाम के समय खाना खाने के बाद बैठक और कहानी किस्सों का दौर शुरू होता है तो रात रात भर चलता रहता है. सुबह से लेकर शाम तक खेती बाड़ी और बैठकों के बीच गाँव की चौपाल चलती रहती है.
गाँव का परिचय
वर्तमान स्वरूप में आबाद होने से पहले यह एक विशाल गाँव था। जो १५ वर्ग किलोमीटर में १२ भागों में विभक्त था। हकड़ा नदी की बाढ़ की चपेट में आने से पूरा गाँव तहस-नहस हो गया। प्राचीन गाँव दस अवशेष कहीं-कहीं अब भी देखने की मिलते हैं। प्राचीन गाँव में विक्रम संवत १५४५ माघ बदी पंचमी को ब्राह्मणी चावली देवी यहाँ सती हुई थी। जिसका मंदिर भी यहाँ है।
बड़े-बुजुर्गों से मिली जानकारी के अनुसार वर्तमान गाँव को वैसाख सुदी तीज विक्रमी संवत १८६० को रामुजी बैनीवाल ने बसाया। वे धोलिया गाँव से आये। बाद में रुपोजी बैनीवाल करणपुरा से आये। दोनों के सहयोग से यह गाँव बसा। रामुजी के वंसज धोलिया व रुपोजी के वंसज कालिया बैनीवाल कहलाते है।
इस गाँव की वर्तमान आबादी लगभग १० हजार है तथा रकबा ४४ हजार बीघा है। भाखड़ा सिंचाई परियोज्नाव की नेठराना वितरिका रसे सिंचाई होती है। भूमि उपजाऊ है, लोगों का मुख्य धंधा खेती है। नलकूपों से भी सिंचाई होने लगी है, मगर अधिंकाश खेती वर्षा पर निर्भर है। गाँव में हिन्दू-मुसलमान व सिक्ख धर्मो को मानने वाली अधिकांश जातियों के लोग मेलजोल से रहते हैं।
गाँव में लगभग सभी मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध है। साहित्यिक दृष्टी से इस गाँव ने विशेष ख्याति अर्जित की है। यहाँ के कई लोग देशभर के नगरों व शहरों में अपना निजी कारोबार करते हैं। जिनका गाँव के विकाश में महत्वपूरण योगदान है।
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